हर साल 9 अगस्त को जब दुनिया विश्व आदिवासी दिवस (International Day of the World’s Indigenous Peoples) मनाती है, तब ये दिन सिर्फ एक तारीख नहीं होता, बल्कि एक पूरी सभ्यता की पहचान, संस्कृति और संघर्ष को सम्मान देने का अवसर होता है।
भारत में और खासकर गुजरात के डेडियापाड़ा जैसे इलाकों में, यह दिन और भी मायने रखता है — जहां आज भी जंगल, पहाड़ और नदियों के बीच आदिवासी जीवन की सादगी और संघर्ष बसी हुई है।—
🪶 आदिवासी समाज: जड़ों से जुड़ा जीवन
आदिवासी समुदाय हमेशा से प्रकृति के सबसे नज़दीक रहा है। उनकी भाषा, पहनावा, रीति-रिवाज, नृत्य और संगीत — सबकुछ प्रकृति की गोद में पनपा है।
जहां बाकी समाज “विकास” की दौड़ में हरियाली को भूल बैठा, वहां आदिवासी समाज ने जंगलों को मां माना, और धरती को देवता।
लेकिन इस संस्कृति को समझने की बजाय, दशकों से उसे “पिछड़ा”, “अंधविश्वासी” या “कमज़ोर” कहकर अनदेखा किया गया।
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⚖️ संघर्ष आज भी जारी है
आज भी देशभर के लाखों आदिवासी भूमि अधिकार, शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोज़गार जैसे बुनियादी हकों के लिए लड़ रहे हैं।
कई बार योजनाएं बनती हैं, लेकिन ज़मीन तक पहुंचती नहीं। आदिवासी इलाकों में स्कूल तो होते हैं, लेकिन शिक्षक नहीं। अस्पताल होते हैं, लेकिन दवाएं नहीं।
ऐसे में यह दिन हमें याद दिलाता है कि सिर्फ जुलूस निकालना या नाच-गाना काफी नहीं, बल्कि असली इज्ज़त तब है जब समाज उनके अधिकारों को भी उतना ही महत्व दे।
✊ “हम आदिवासी हैं, कमज़ोर नहीं”
आज का आदिवासी युवा पढ़-लिख रहा है, आगे बढ़ रहा है — लेकिन अपनी पहचान को छोड़े बिना।
वो डॉक्टर बनना चाहता है, लेकिन मां की बोली को नहीं भूलना चाहता।
वो अफसर बनना चाहता है, लेकिन खेत-खलिहान की मिट्टी से रिश्ता नहीं तोड़ना चाहता।
वो नेता बनना चाहता है, लेकिन अपनी जात-पात नहीं,
जय जोहार