ChaitarVasava: आदिवासी राजनीति की एक उभरती हुई आवाज़

 

चैतारभाई वसावा गुजरात के नर्मदा जिले की डेडियापाड़ा तहसील, जो घने जंगलों और आदिवासी संस्कृति के लिए प्रसिद्ध है, वहीं से एक तेज़-तर्रार और जुझारू नेता ने राज्य की राजनीति में अपनी खास पहचान बनाई है — चैतारभाई दामजीभाई वसावा।

चैतारभाई वसावा – आदिवासी राजनीति की उभरती आवाज़ और जीवनी

👤 परिचय

चैतारभाई वसावा एक आदिवासी नेता हैं, जो 2022 के गुजरात विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (AAP) की ओर से डेडियापाड़ा (अनुसूचित जनजाति सुरक्षित) सीट से विधायक बने। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार को 40,000 से अधिक वोटों के भारी अंतर से हराया।

उम्र: लगभग 35 वर्ष

शिक्षा: B.R.S (ग्रामीण अध्ययन)

व्यवसाय: खेती व मजदूरी

राजनीतिक दल: आम आदमी पार्टी (AAP)

विधानसभा कार्यकाल: दिसंबर 2022 से

🗳️ राजनीतिक सफर

चैतारभाई का राजनीति में आगमन जमीनी स्तर के संघर्षों से हुआ। वे लंबे समय से आदिवासी अधिकारों, वनभूमि अधिकारों और शिक्षा जैसे मुद्दों पर सक्रिय रहे हैं। उनकी ज़मीन से जुड़ी छवि ने उन्हें डेडियापाड़ा के मतदाताओं का भरोसा दिलाया।

2022 के चुनाव में उन्होंने खुद को एक सच्चे “जनप्रतिनिधि” के रूप में प्रस्तुत किया। उनका कहना है,

> “मुझे विधायक नहीं, अपने गांव का सेवक बनकर काम करना है।”

📢 प्रमुख मुद्दे और विचारधारा

चैतारभाई वसावा का फोकस वन अधिकार, आदिवासी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, और रोजगार जैसे विषयों पर रहा है। वे गुजरात में “भील प्रदेश” के नाम से एक अलग आदिवासी राज्य की भी मांग कर चुके हैं।

उनका कहना है कि:

“सरकारें आदिवासियों की बात करना तो जानती हैं, लेकिन उनके लिए ज़मीन पर कुछ नहीं करतीं।”

⚖️ विवाद और कानूनी मामले

जुलाई 2025 में चैतारभाई को एक सरकारी अधिकारी के साथ कथित झगड़े के मामले में गिरफ्तार किया गया था। उन पर हत्या की कोशिश (IPC धारा 307) समेत अन्य धाराओं में मुकदमा दर्ज हुआ। यह मामला राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित बताया गया।

वर्तमान में वे न्यायिक हिरासत में हैं और उनके जमानत आवेदन खारिज किए जा चुके हैं।

🌿 जनता के बीच छवि

हालांकि कानूनी मामले उनके खिलाफ हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता पर इसका नकारात्मक असर नहीं पड़ा है। ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में अब भी उन्हें “आदिवासियों की आवाज़” माना जाता है।

🔚 निष्कर्ष

चैतारभाई वसावा आज उन गिने-चुने नेताओं में शामिल हैं जो सत्ता में रहते हुए भी ज़मीन से जुड़े रहते हैं। वे एक ऐसे राजनेता हैं जिनकी लड़ाई केवल चुनाव तक सीमित नहीं है — बल्कि वह सामाजिक न्याय और जनजातीय अस्मिता की लड़ाई है। आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या वे गुजरात की राजनीति में एक लंबी पारी खेल पाते हैं या नहीं।

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